आज हम बात करने जा रहे हैं हिंदी साहित्य के एक ऐसे महान स्तंभ की, जिनके बिना आज की हिंदी की तस्वीर शायद कुछ और ही होती। जी हाँ, नाम लिया जा रहा है भारतेंदु हरिश्चंद्र का। उन्हें ‘आधुनिक हिंदी साहित्य का जनक’ और ‘हिंदी नाटक के पितामह’ कहा जाता है। आइए, आज उनके जन्मदिन के मौके पर डालते हैं एक नज़र उनके जीवन और उनके अतुल्य योगदान पर।
जन्म और परिवार
भारतेंदु हरिश्चंद्र का जन्म 9 सितंबर, 1850 को काशी (वाराणसी) के एक संपन्न और साहित्यिक घराने में हुआ था। उनके पिता, गोपाल चंद्र, एक कवि थे और उनकी माँ का नाम पार्वती देवी था। कहते हैं न, संस्कार बचपन से ही मिलते हैं, यह बात भारतेंदु जी पर सटीक बैठती है। महज 5 साल की उम्र में ही उन्होंने अपनी माँ को खो दिया, और 10 साल का होते-होते पिता भी चल बसे। इसके बावजूद, घर में साहित्य का माहौल होने की वजह से उनकी रुचि कविता और साहित्य की ओर बढ़ती चली गई।
‘भारतेंदु’ की उपाधि और साहित्यिक सफर
महज 15-16 साल की उम्र में ही हरिश्चंद्र ने कविताएँ लिखनी शुरू कर दी थीं। उनकी प्रतिभा से प्रभावित होकर काशी के विद्वानों ने उन्हें ‘भारतेंदु’ (यानी ‘भारत का चंद्रमा’) की उपाधि से सम्मानित किया। और फिर, यही नाम इतिहास में अमर हो गया।
भारतेंदु हरिश्चंद्र सिर्फ एक कवि ही नहीं, बल्कि एक बेहतरीन नाटककार, निबंधकार और पत्रकार भी थे। उन्होंने हिंदी को सिर्फ साहित्य तक ही सीमित नहीं रखा, बल्कि उसे जन-जन की भाषा बनाने का काम किया। उनकी लेखनी में एक अद्भुत मिठास और व्यंग्य था, जो समाज की कुरीतियों पर चोट करती थी।
भारतेंदु युग: हिंदी साहित्य में एक नया दौर
उनके द्वारा शुरू किए गए साहित्यिक दौर को ‘भारतेंदु युग’ के नाम से जाना जाता है। इस दौर ने हिंदी साहित्य में एक क्रांति ला दी। उन्होंने:
- हिंदी नाटक की नींव रखी: ‘भारत दुर्दशा’, ‘अंधेर नगरी’ और ‘सत्य हरिश्चंद्र’ जैसे नाटक लिखे, जो आज भी प्रासंगिक हैं। ‘अंधेर नगरी’ का मशहूर डायलॉग ‘अंधेर नगरी चौपट राजा, टके सेर भाजी, टके सेर खाजा’ आज भी लोगों की जुबान पर है।
- पत्रकारिता को बढ़ावा दिया: उन्होंने ‘कविवचन सुधा’ और ‘हरिश्चंद्र चंद्रिका’ जैसे पत्र निकाले, जिनके जरिए उन्होंने आम लोगों तक हिंदी पहुँचाई और सामाजिक-राजनीतिक मुद्दों पर अपनी बात रखी।
- खड़ी बोली को प्रमोट किया: उस जमाने में जब अधिकतर लेखन ब्रजभाषा या अवधी में होता था, भारतेंदु जी ने खड़ी बोली हिंदी को साहित्य की मुख्यधारा में लाने का पुरजोर प्रयास किया।
एक झलक: भारतेंदु जी का हस्ताक्षर (Signature)
यहाँ एक दिलचस्प बात यह है कि भारतेंदु हरिश्चंद्र का हस्ताक्षर (हस्ताक्षर) भी काफी unique और पहचानने वाला था। उनके दस्तखत से भी उनकी साहित्यिक छवि का पता चलता है।
विरासत और अंतिम समय
दुख की बात है कि महज 35 वर्ष की छोटी सी उम्र में ही 6 जनवरी, 1885 को हिंदी का यह चमकता सितारा दुनिया को अलविदा कह गया। लेकिन इतने कम समय में ही उन्होंने इतनी बड़ी विरासत छोड़ी, जिसकी बदौलत आज भी हिंदी साहित्य उनका ऋणी है।
सारांश
भारतेंदु हरिश्चंद्र सिर्फ एक लेखक नहीं थे, बल्कि एक सुधारक, देशभक्त और एक ऐसे visionery थे, जिन्होंने हिंदी को एक नई पहचान और दिशा दी। उनका काम आज के पत्रकारों और लेखकों के लिए एक प्रेरणा है।
आज भी जब हम आधुनिक हिंदी की बात करते हैं, तो उसकी नींव में भारतेंदु हरिश्चंद्र का नाम सबसे ऊपर लिखा मिलता है।
क्या आपने भारतेंदु हरिश्चंद्र की कोई रचना पढ़ी है? हमें कमेंट में जरूर बताएं।